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From PhalkeFactory

राह चलती सड़क एक ऊँचे आर्च से फिसल कर गायब हो जाती है, तो समझो शहर यहाँ पर ख़तम होता है. "या शुरू", और जैसे अपनी बात को सच बताने के लिए, तुम यह कहते कहते कहते तेज़ कदम पर उस गेट के पार, सड़क के आखरी टुकड़े पर जा खड़े होते हो, गेट को देखते हुए. मैं जब वहाँ पहुँचता हूँ, तुम्हें मौन पाता हूँ. तुम कुछ देर गेट ताकते रहते हो, और फिर मेरी तरफ मुड़ कर देखते हो, बच्चे की सी मुस्कान होंठों पर लिए हुए. फिर सर घुमा कर उस गेट को देखते हो, फिर मुझे.. चहरे पर लिखा है, तुम्हारा मन आँखों की चमकती नाव पर चढ़कर मछ्लीद्वार की बड़ी मछ्लियोन के बीच है, बुर्क़े सी टोप डाले शेरो से आँख मिला रहा है, नाव से झुककर,पत्थर के गजों की पीठ सहला रहा है. ऊडन तश्तरी तश्तरी उड़ती है, पंख, मुहम्मद का घोड़ा मायरब्रिज के घोड़े से पहले उड़ी थी. अल बुराक- जहाँ तक उसकी नज़र दौड़ती थी, वहीं तक एक कदम. कालीन की धुन्ध से बादल निकालने को लगी हुई हैं उंगलियाँ. M बादल उड़ जाते हैं, उंगलियाँ काम में लगी रहती

यहाँ दोफ़हर की धूप में, तपती सड़क पर उड़ते परिंदों की परच्छाइयाँ दिखती हैं. आसमान देखा नहीं जाता पर तपती सड़क स्लेटी रंग का आसमान बन जाती है.. पंख गिरते उठते गिरते, फड़फड़ाते फिर मौन मुद्रा में हवा की तरंगों पर सवार हैं. इन परछाईयों पर इस गेट का नाम पड़ा है? धूप में तपता एक आदमी परछाई को जैसे सम्मोहित होकर देख रहा है, कहीं से पानी मिलने की आस छोड़ कर..वो सर उठाता है, तो उसकी पलकें भी ऊपर को उड़ान भरती हैं.

तीस एप्रिल यहाँ मैदान में फाल्के की सालगिराह को लेकर एक 'अर्बन रीचूअल' मनाया जाता है. एक बड़ा चौकोर गुब्बारा आसमान में छोड़ा जाता है, कहते है यह फाल्के का स्टूडियो है.. (तो आसमान में क्यों उड़ता है?) भरा हुआ मैदान था, और फेरी वाले भी छोटे चौकोर गुब्बारे बेच रहे थे. किसी पांडुलिपी की बात कही थी उस फाल्के के ग्यानि ने..कोई खोई हुई किताब जो फाल्के के बच्चों के अनुसार, उनके पिता ने उनके लिए लिखी थी ( यह मिला है उन बच्चों से, उनपर फिल्म बनाई है).. और यह गुब्बारे? मैने पूछा. वो जैसे खुश हो गया. बोला- अरे- यह तो- मेरी एक कहानी हैं. मतलब?

मैने एक कहानी लिखी थी, नहीं, मैने एक छवि देखी थी- फाल्के का पुत्र, बबराया, हनुमान की पोशाक पहने ( फाल्के के बच्चे उसकी मिथोलाजिकल फिल्मों में काम करते थे), तो हनुमान बना बबाराया अपने पिता का स्टूडियो एक हाथ में उठाए उड़ रहा है. और स्टूडियो के अंदर फाल्के उस पांडुलिपि की रचना कर रहा है. यह 1918 की इमेज थी मेरी कहानी में. फाल्के को काम नहीं था, बिज़नेस चौपट हो गया था, वो स्टूडियो की दीवारों में सिमट गया था. बच्चों को पिता के दर्शन हुए.. अगर यह तुम्हारी कल्पित छवी है, तो यहाँ- ऊपर कैसे पहुँची? उसकी आँखों में नरम खुशी दिखी मुझे, और खुली हथेलियों में अचरज.. "सचमुच, पता नहीं". [3]

सोलह पन्ने की बारीक किताबें, कच्चा काग़ज़ जो पाकयोग, औषधी विधि, नुस्खे, मेहेन्दी डिज़ाइन आदी आदी के प्रबल प्रभाव से गायब ही हो गया है, हर बुक में मोटी लकीरें हावी हैं, काग़ज़ अधमरा सा है. अक्षर, डिज़ाइन, शब्दों के गुट पन्नों पर तरह तरह की सूरत बनाए हुए हैं. सोलह पन्नों की बारीक किताबें, चिमटे सी, ताली सी, बंडल का बंडल हाथ में उठाओ, स्टेशन से छूट्ती बस में घुस जाओ, फीके खोए चहरों के सामने खड़े होकर जागरण करो, कीर्तन करो, किताबों की विषय वस्तु का बखान करो, गाना गाओ, आवाज़ के तारों पर आँखों की पुतलियों ऊपर उठाओ. बस के चलते चलते एक दस रूपिया मिल जाएगा.. और खिड़कियों के नीचे भाग भाग कर भगोड़ो से किताब वापस लेनी होगी..यून दिन का काम ख़तम होता है. त्रिम्बक की आरती.. हाँ है. क्यों नहीं, सारे ज्योतिर्लींगों पर किताब है, शिवपुराण है, नाथ पंथियों का ज़िक्र है, सब कुछ है, इन पन्नों में, ईसाई नामों पर किताब है, उर्दू के लव लेटर हैं, पूछो तो सब मिलेगा. बोलो?? जब पीछे मैदान पर शाम का स्वाग चलता है, दुपट्टा डाले लड़का कमर लचकाता है, घुटनों पर बल डाल घाघरे को हिला हिला कर ज़मीन की ओर बढ़ता है, जब जवान और बुड्ढे खुश हो कर खिलखिला पड़ते हैं, या गुलाबी बने होठों के हिलने लचक्ने पर आँखों की सुध खो जाती है.. जब स्वाग का रंग ज़ोर पर होता है, मैदान से हवा यहाँ स्टेशन की ओर आती है, और यह मेरी बिछी हुई किताबें भी ताली मारती हैं.

शहर की कॉलोनी. रुमाल से प्लाट पर सजे हुए घर, घरों के बीच तुम नये, अंजान, तुम्हारा दिल हर बार दहलता तो है. पहले दिन चलो तो गेट पर लेती हुई अड़ेद उमर की थकी आँखें तुम्हें तकती है, बोलचाल में विराम तुम हो, होंठ दबाए सड़क पर चुपचाप गुज़रने की नायाब कोशिश करते हुए. तुम गाते बँधे रिश्तों के इन घरों की रंगोली का एक सुंदर अंश कहीं से नहीं लगते और कुछ दिनों हर बार मुझे यह बेवकूफ़ सा दर लगा रहता है, कहीं मालिक मकान हूमें निकाल बाहर तो ना करेंगे? हमें किससी तरह शर्मिंदा होना ही होगा, यह डर पारानोईया सा मन को चूहे सा कुतरने लगता है. सड़क पर खेले बच्चों की नज़र भी कैसे घूरती सी है और फिर अचानक तुम्हारे चहरे से फिसल कर, फिर लौटती है, और तुम वापस घूर तो बिल्कुल नहीं पाते, उल्टा फिर वो शरम सी तुम्हें सताने लगती है. चाँद के चड़ते चड़ते वेताल के जंगल के कई सारे भूत तुम्हारे फेफड़ों में बस कर तुम्हारी साँसें दबाने लगते हैं. पेरनायिया, म कहता है, हाँ, पहचाने संदर्भों में विपरीत पहचान ले कर बसने का पारानोइया. जब घड़ी भर तुम भी चाहते हो की तुम्हारे पास गाड़ी होती, यह परिवार वालों का संतुलित सा गाड़ियों से उतरना चढ़ना, यह बच्चों की दुनिया का बढ़ा होना. जिसमें शाम को तुम भी अपने किससी बचपन के दोस्त के साथ, सैर करते हुए, गुरखा रेजिमेंट की बातें कर सको, या रिजर्व बॅंक की.. आज शाम को मैं फिर छोटी सी सैर पर निकला, चार दिन बाद, और आज, उन्हीं सड़कों पर, पएधों से गिरे फूलों की सड़क पर लड़की स्कूटर पर बैठे बतिया रही थी, उसने मेरी ओर देखा भी पर मुझे परेशानी नहीं हुई, क्या उसकी नज़र अलग थी. ऊपर बालकनी पर कपड़े की गठरी पर छोटा सा बुढ़िया का सर मुझे देख कर बाँये से दाएँ बंडल पर हौले हौले घूमा, तो मैं आयेज बढ़ते हुए उस गठरी पर सर के घूमने को ही देखता रह गया. उसकी बूढ़ी आँखों का काजल, उसके चहरे का मुखौटा, सब दिखा पर वो गर्दन का घूमना ही याद रहा.

शहर के सारे बाग एक मोर की पूंछ भर थे. एक दिन मोर उड़ा और शाहर उपवांों से खाली हो गया. चूहों को उड़ता देख मोर उड़ा.. शहर के इन बंद घरों का क्या, इन रास्तों का क्या, यहाँ कितने वाक्य बनते बिगाड़डे हुए कितने मन क्या क्या कहते होंगे. खिड़कियाँ बंद हैं, पर अंदर की आवाज़ें सुन पाते तो?

दोपहर का आखरी घंटा है, बस कुछ समय में यह तेज़ रोशनी शांत हो जाएगी, सूरज का रथ आसमान में और ऊपर चढ़ने लगेगा. शहर में पुराने वाइट वाश मकानों का विस्तार है, खिड़कियाँ खुलने लगती हैं. इस गली में तो दोपहर भर क्रिकेट का गेम चला है. अब बल्लेबाज़ों के पार की खिड़की पर से एक सर निकलता है और ऊपर को देख तेज़ आवाज़ देता है: उषा? उषा?? और फिर घुंघराले बालों वाली, गोरी, चहरे पर लालिमा, ऊषा, नीचे को झाँकती है. ऊषा का रंग गाय का, गौधुलि का लाल भूरा रंग होता है. ऊषा ब्रह्मा के वश से उड़ कर आसमान में एक लाल तरंग सी उड़ी थी . घुंघराले बालों वाली ऊषा, किसी बच्चे की नानी का नाम है. नानी का पेड़ सा सुंदर विस्तार है, बैठती है, तो भारी पाँव अपनी किसी मुद्रा में फैल जाते हैं और नानी के मोटे हाथ, उसकी जांघों पर पड़ उसे सहारा देते हैं. नानी के, सड़क पर भटकती लाल गाई से लाल, महेन्दी लगे बाल हैं, कनपटी पर रूखे सफेद बाल फूट पड़े हैं. नानी दूर से मज़ाक सुनती है, कुछ कहती नहीं, पर उसकी मुस्कुराहट फिसल उसके पुराने चहरे पर फैल उठती है. नानी के चहरे पर मेंढक से छीनट हैं. छोटे बढ़े भूरी पेन से बने निशान गीला सा चेहरा है नानी का. नानी का नाम ऊषा है.

अँग्रेज़ों के ज़माने में सिल्क स्क्रीन होते थे- या लकड़ी के- तीन पाटों का एक परदा, हर पार पर बारीक काम, जापानी फूल पाती, या सूर्यास्त के भड़कीले रंग, या शीशम पर करी गयी बारीक नक्काशी.. तो लो, मैं भी एक डेजाइन डालता हूँ, एक ऐसे पर्दे की, जो अफ़सरी ड्राइंग रूम की गहराइयों से दमके.. परदा इतना सुंदर कि पीछे कौन झाँकेगा? परदा 1, दोपहर का आखरी पहर, पहाड़ी इलाक़ा, सांकचूरी के बाहर का पहाड़ी इलाक़ा. लकड़ी के बल्लों के बीच तार का जाल डाला है. बल्ले और तारों के एक पाँच फीट त्रिज्या के सर्कल ने पहाड़ी की ढलान पर बिछी घास का एक हिस्सा घेर लिया है. इस कारावास के तारों पर अपने को बार बार पटक रहा है वो बारा सिंगा बालक. तारों के जाल पर उसके व्यथित बारीक बदन का लगना ही उसकी वेदना की आवाज़ है. मेरे बगल में खड़ा फोरेस्ट डिपार्टमेंट का कोई छोटे वर्ग का कर्मचारी है. उसके भूरे थके चहरे की ढलानों पर दो मैले चश्मों सी आँखें हैं, आँखों पर तैरती हैरान पुतलियाँ मेरे जैसे उस बालक को एकटक ताक रही हैं. हम दोनों शायद उस बच्चे के सर से जुड़े टहनीयों के अद्भुत जाल-मुकुट को देख कर घबरा रहे हैं, कि वो तब टूटा और अब,. उस बालक के लिए वो उसके अंग का हिस्सा हैं. वो परेशानी में अपने बदन को फिर फिर दे मारता है, हमारी कमज़ोर आँखें और सहम जाती हैं. "कल रात को जंगल से भटक कर बाहर आ गया था" वो छोटी बॅक स्टोरी देता है. मेरी आंखँ बालक से हटकर ( और हम कर भी क्या सकते हैं? ) पहाड़ी ढलान पर से उतरते बैरे की ओर जाती है, अँग्रेज़ों के ज़माने की कुछ मैली पोशाक है, मेरी नज़र उसके हाथ के ट्रे पर है, ट्रे पर लगे फ़्लास्क और कप, फ़्लास्क याने चाय है... ट्रे मेरे पास से गुज़र कर मेरे पार जाता है, तो मैं हिरण छोड़ कर आगे बढ़ता हूँ (उसको खड़े खड़े देख ही सकता हूँ.. और देखा भी नहीं जाता). गेस्ट हौस का गेट. पहाड़ की वही ढलान पर यहाँ घास से तिनके कंकड़ जंगली झाड़ बीन कर लॉन बनाया गया है. लॉन के एक छोर पर साहब बेंत की कुर्सी पर बैठे हैं, सामने काँच की मेज पर पड़े काग़ज़ साईन कर रहे हैं. बगल में पीठ पीछे हाथों को 'तैयार अरदली मुद्रा' में रखे अरदली, मुख पर तैयार मुस्कान, किसी नर्तक समान .. बैरा चाय साहब के सामने रखता है, मेरे अंदर बुदबुदाता ख़याल स्पष्ट हो जाता है, मैं सोचता हूँ बाहर आएगा तो मैं भी उस से चाय माँगूँगा.. छोटे कमरे में सही, पर मैं भी इस ही गेस्ट हाऊज़ में रहता हूँ! साहब के पार हरे रूमाल से लॉन के दूसरे छोर पर, पर, हरी घास में डूबी, गिरती उतरती छः खिलखिलाती बारीक टांगे, तीन युवक युवतियाँ, दाँतों में भीनी चमक , खिल खिल करते स्वर, अपनी ही फोटो ले रहे है, और उसको देख कर हँस रहे हैं, आनंदित हो रहे हैं.. ही हही ही का अचेत खुश स्वर. मैं उन्हे देख कर रुक सा जाता हूँ. एक बार, पापा के राज में, मैं ऐसा नहीं दिखता रहूँगा क्या? अरदली और अन्य मेरे रूमाल के बॉर्डर को सजाते हुए, और मैं, बीच में, बेवकूफ़ और बहुत सुंदर.