Many years later, Mandakini

From PhalkeFactory
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शाम की तिरछी धूप बाग के कोनों में लंबी घास के सरों पर ख़ास बैठी थी. हर घास का सर कपास का था, रूई के तार के जालों पर मैल के कण से अटके घास के बीज थे . जहाँ जहाँ सूरज की किरण उस रूई के जाले को छूती, बाग में और दमक ले आती . उनकी आड़ में यहाँ वहाँ, छुयी मूई के बारीक पौधे. घास की लकीर जो पेड़ होतीं, तो यह मूई छुयी छोटी झाड़ थीं. एक डाल की पाती को उंगली लगाओ तो उसके साथ एक और डाल सिमट जाती थी. तो लगता कि हर डाल के ख़ास साथी हैं, हर डाल के पाँव अटके हैं, यहाँ से लहर चलती है तो तरंग वहीं तक जाती है.

भाई बहन कुछ देर इधर उधर चलते रहे. बड़े पाँव थे, बड़ा आकार, मंच के पर्दे पर नाज़ुक रंगों से शाम की रोशनी में धुला सा बाग, उसमें अपने आकार से सहम कर चल रहे थे, दोनों ही अलग अलग घास को ताक कर उस दरवाज़े को ढूँढ रहे थे जो बचपन में यहाँ से खुलता था, घास के जटिल विस्तार को रास्ता- आँखें बचपन में चाभी का काम करती थीं, अब उनकी इच्छा शक्ति कमज़ोर पड़ गयी थी.

बहन ने देखा एक जगह एक गुड़िया की कपड़े की टाँग पड़ी थी, पत्तों से गुज़र कर धूप उसपर छाव के त्रिकोण बनाती चली थी.

दूर पेड़ों के बीच एक घर का घोंसला था, सामने रस्ते पर, घर का बाबा अपनी गाड़ी में सवार आ रहा था. सेमेंट के ईंटों से बना गोदाम सा घर, मूँह खोले बाबा का रास्ता ताक रहा था, घर के आड़े तार पर कपड़े सुन्न पड़े थे. जलते पत्तों की खुश्बू हवा में थी


घर की सब खिड़कियों पर शाम के धूमिल हल्के पर्दे एक एक करके गिरने लगे थे.जब नीलकंठ मंदा के पीछे भागा था. मंदा के हाथ में काँच की कटोरी थी, एक सेट से जो बाबा को विलायत वालों ने दिए थे. जो रसोई में कभी इस्तामाल ना होते .. सामने शोकेस में पड़े रहते थे. कुर्सी पर चढ़ कर जब मंदा ने संभाल कर कटोरी निकाली और पीछे मुड़ी तो देखा नीलकंठ उसके पाँव के सिरहाने उसकी ओर सर किए खड़ा था. . वो रसोई गयी, तेल का बर्तन खोला. कटोरी में पानी डाला, और फिर दो बूँद तेल पानी के ठीक बीच में डाले. .. अब धीरे धीरे बाहर ईंटों पर कटोरी यों संभालकर चल रही थी कि एक बूँद भी ना गिरे. उसने पीछे मुड़कर देखा. चेक कर रही थी - नीलकंठ देख रहा था ना.

बाहर ज़मीन पर अख़बार बिछा था, उसपर कटोरी रखी. "देख नीलकंठ ने देखा- काँच की कटोरी के पार अख़बार के अक्षर दिख रहे थे.. मंदा ने उसका सर और नीचे किया "देख"

नीलकंठ ने देखा.. गर्दन पर पड़ी मंदा की मोटी उंगली का प्रेशर था

मंदा: बीच के अक्षर बड़े नहीं दिख रहे..

नीलकंठ की आँखें चमकी "बीच के अक्षर बड़े दिख रहे हैं!!"

"चश्मा" मंदा बोली..

"तूने चश्मा बनाया"

पीछे आँगन में कोई आया, मंदा उठ कर भागी, पेट के बल लेटे नीलकंठ ने अपने चश्मे से सर तो उठाया, पर वो जल्दी उठ नहीं पाया. देखा कोई सामान लेकर रास्ते से दरवाज़े की ओर चला गया है, उसने नीलकंठ को देखा ही नहीं. नीलकंठ ने अख़बार हटाया, घास के ऊपर कटोरी को सरकाया चश्मे के सहारे मट्टी घास में कोई जादू ढूँढने लगा. खाली पड़े अख़बार को देख कर वो चश्मा याद करता रहा: ऐसी काँच की कटोरियों पर तेल और पानी से अगर चश्मा बन गया तो.. क्या वो अमीर नहीं हो जाएँगे? मंदा को कैसे पता लगा? पर वो तो बहुत कुछ पता लगा लेती है.

रात को जब आँगन में खाट लगे तो वो तारों को देखता रहा, तो आसमान छत बन गयी. दूर तारों की टिमटिम दिखी. दो आँखों पर दो कटोरियाँ लग जायें, पानी के चश्मे पर तेल की पुतली. आँख पर दूसरी आँख तो तारे नहीं बड़े दिखने लगेंगे?