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चाई के पानी में डूबे चहरे, आभूषण, पगड़ियाँ... | चाई के पानी में डूबे चहरे, आभूषण, पगड़ियाँ... | ||
फ्लेक्स की धूप धूसित सफेदी पर, किसी खोए हुवे केमेरे पर नज़र डालतीं , उस पानी से ताकतीं , कल की आँखें कोमल हैं . | फ्लेक्स की धूप धूसित सफेदी पर, किसी खोए हुवे केमेरे पर नज़र डालतीं , उस पानी से ताकतीं , कल की आँखें कोमल हैं . | ||
- | फ्लेक्स की रूप कुरूपता पर भंवरे की तरह झिरजीरा कर ही आँखें उपवन की ओर बड़ पाती हैं.. मंच की ओर जिसपर हल्दी कुमकुम और गहरे हरे रंगों में साँप नृत्य सी जटिल कृति झुकी हुई है. कलकत्ता से बहरामपुर से हयदेराबाद तक आए लेक कलर्स, तरल रंग जिनपर रोशनी बैठ नहीं पाती, ब्रश सफेद रंग से उसे यहाँ वहाँ रूप देता है. मोर अपनी पूंछ में जैसे, कृति अपने सौन्दर्य में डूबी है. वो झिर्झिराती आँख उभरती - डुबकी लगाती साँस के गुब्बारे उन रंगों के पानी में छोड़ने लगती है. | + | फ्लेक्स की रूप कुरूपता पर भंवरे की तरह झिरजीरा कर ही आँखें उपवन की ओर बड़ पाती हैं, मंच की ओर जिसपर हल्दी कुमकुम और गहरे हरे रंगों में साँप नृत्य सी जटिल कृति झुकी हुई है. कलकत्ता से बहरामपुर से हयदेराबाद तक आए लेक कलर्स, तरल रंग जिनपर रोशनी बैठ नहीं पाती, बस ब्रश की सफेदी से यहाँ वहाँ उसका रूपांकन होता है. . मोर अपनी पूंछ में जैसे, कृति अपने सौन्दर्य से मुग्ध है, नज़र अंदर की ओर है. वो झिर्झिराती आँख उभरती - डुबकी लगाती साँस के गुब्बारे उन रंगों के पानी में छोड़ने लगती है. |
- | कमल पद पर खड़ी टेकनी की लकीरें डालते हुवे ब्रश घूम कर अलंकार की कितनी मुद्राएँ बना गया है .. जहाँ दो आधार स्तंभ आस पास दिख गये, एक छत्री उनपर पेड़ सी फैल गयी है. प्लाइ की लकड़ी कहाँ लकड़ी रही है. | + | कमल पद पर खड़ी टेकनी की लकीरें डालते हुवे ब्रश घूम कर अलंकार की कितनी मुद्राएँ बना गया है .. जहाँ दो आधार स्तंभ आस पास दिख गये, एक छत्री उनपर पेड़ सी फैल गयी है. |
- | एक छ्त्री के नीचे, किन्ही दो ख़ास पूर्वजों की तस्वीरें फ्रेम में डाल कर, कील ठोक कर लगाई गयी है., उनपर गुड़हल की लाल माला, आगे पीछे ऊपर नीचे हरे-पीले पर सफेद से डिज़ाइन. बीस कदम पीछे भागो तो यह कोना बड़ा सा बीड़ी का पैकट नज़र आता है जिसपर सेठ सेठानी की तस्वीरों से कंपनी का नाम लिखा है और वहाँ, नीचे, तस्वीर के पाँव के पास एक छोटा सा टेबल पड़ा हुआ है, किसी और ज़माने की शीशम का गहरा रंग, 'र' सी सहज टाँगें, और टाँगों के बगल में, रेत पर सोता हुआ काजल सा काला कुत्ता.लगता है शीशम पर से कोई ग्रामफोन बाज पड़ेगा, एच. एम. वी का कुत्ता, उठ खड़ा होगा. मेरी बात सुनकर काजल कुत्ता एक घड़ी खड़ा होता है ( एकदम काला है) दो कदम चलता है, जैसे कह रहा हो मैं ज़िंदा हूँ और फिर वैसे ही नाक रेत पर बिछआ कर फिर लेट जाता है. | + | एक छ्त्री के नीचे, किन्ही दो ख़ास पूर्वजों की तस्वीरें फ्रेम में डाल कर, कील मार कर प्लाई में ठोका गया है, उनपर गुड़हल की लाल माला, आगे पीछे ऊपर नीचे हरे-पीले- सफेद से डिज़ाइन. बीस कदम पीछे भागो तो यह कोना बड़ा सा बीड़ी का पैकट नज़र आता है जिसपर सेठ सेठानी की तस्वीरों से कंपनी का नाम लिखा है. नीचे, तस्वीर के पाँव के पास एक छोटा सा टेबल पड़ा हुआ है, शीशम का गहरा रंग, 'र' सी सहज टाँगें, और टाँगों के बगल में, रेत पर सोता हुआ काजल सा काला कुत्ता. पुरानी लकड़ी और कुत्ते को आस पास देख कर क्षण भर लगता है कि अचानक शीशम पर से कोई ग्रामफोन बोल पड़ेगा और एच एम वी का पुराना नज़ारा सजीव हो उठेगा. बीड़ी के बड़े पैकेट के सामने, छोटी मेज के पार जब कुत्ता सोता रहता है, तो मन अपनी बुनाई उधेड़ने लगता है कि कुत्ता उठ खड़ा होता है, यहाँ वहाँ दो कदम रखता है, और फिर, गीली नाक रेत पर फिसला कर, वापस सो जाता है. |
Revision as of 10:44, 8 July 2014
2104. संसद भवन को जाती, दोपहर की धूप में तपती चिकनी सड़क छोड़ कर पैर ज्यों किनारे की रेत पर पड़ता है, सॅंडल से पार होकर प्रत्याशा की हल्की तरंग तन को छेड़ती है, मुँह से एक छोटा हनुमान बाहर उड़ आता है ... आगे थियेटर को जाता किसी शादी के मंडप का सा अस्थाई द्वार है . सचिवालया के फॉर्मल विस्तार से वो वैसा ही रिश्ता रखता है, जो बहती रेत ठोस सड़क से. गेट के साईड में टिकट घर का छोटा टेंट है, पचीस रुपये प्रति टिकट, फिर अंदर बड़े टेंट का खाली विस्तार. वहाँ बिखरी कुछ कुर्सियों पर बैठो, आगे मंच की ओर देखो या इधर उधर, पीछे.. फिलहाल आज का यही कार्यक्रम हो सकता है, कंपनी के अधिकांश लोग बाहर गये हैं.
तेज़ दोपहर पेड़ सी मीठी बड़े टेंट की छाओं में, रेत पर पड़ी प्लास्टिक की कुर्सी पर बीतने लगती है. आगे फ्लेक्स की दो कतार मंच की ओर बड़ रही हैं , उनपर इस ड्रामा कंपनी के पूर्वजों की तस्वीरें लगी हैं: चाई के पानी में डूबे चहरे, आभूषण, पगड़ियाँ... फ्लेक्स की धूप धूसित सफेदी पर, किसी खोए हुवे केमेरे पर नज़र डालतीं , उस पानी से ताकतीं , कल की आँखें कोमल हैं . फ्लेक्स की रूप कुरूपता पर भंवरे की तरह झिरजीरा कर ही आँखें उपवन की ओर बड़ पाती हैं, मंच की ओर जिसपर हल्दी कुमकुम और गहरे हरे रंगों में साँप नृत्य सी जटिल कृति झुकी हुई है. कलकत्ता से बहरामपुर से हयदेराबाद तक आए लेक कलर्स, तरल रंग जिनपर रोशनी बैठ नहीं पाती, बस ब्रश की सफेदी से यहाँ वहाँ उसका रूपांकन होता है. . मोर अपनी पूंछ में जैसे, कृति अपने सौन्दर्य से मुग्ध है, नज़र अंदर की ओर है. वो झिर्झिराती आँख उभरती - डुबकी लगाती साँस के गुब्बारे उन रंगों के पानी में छोड़ने लगती है.
कमल पद पर खड़ी टेकनी की लकीरें डालते हुवे ब्रश घूम कर अलंकार की कितनी मुद्राएँ बना गया है .. जहाँ दो आधार स्तंभ आस पास दिख गये, एक छत्री उनपर पेड़ सी फैल गयी है.
एक छ्त्री के नीचे, किन्ही दो ख़ास पूर्वजों की तस्वीरें फ्रेम में डाल कर, कील मार कर प्लाई में ठोका गया है, उनपर गुड़हल की लाल माला, आगे पीछे ऊपर नीचे हरे-पीले- सफेद से डिज़ाइन. बीस कदम पीछे भागो तो यह कोना बड़ा सा बीड़ी का पैकट नज़र आता है जिसपर सेठ सेठानी की तस्वीरों से कंपनी का नाम लिखा है. नीचे, तस्वीर के पाँव के पास एक छोटा सा टेबल पड़ा हुआ है, शीशम का गहरा रंग, 'र' सी सहज टाँगें, और टाँगों के बगल में, रेत पर सोता हुआ काजल सा काला कुत्ता. पुरानी लकड़ी और कुत्ते को आस पास देख कर क्षण भर लगता है कि अचानक शीशम पर से कोई ग्रामफोन बोल पड़ेगा और एच एम वी का पुराना नज़ारा सजीव हो उठेगा. बीड़ी के बड़े पैकेट के सामने, छोटी मेज के पार जब कुत्ता सोता रहता है, तो मन अपनी बुनाई उधेड़ने लगता है कि कुत्ता उठ खड़ा होता है, यहाँ वहाँ दो कदम रखता है, और फिर, गीली नाक रेत पर फिसला कर, वापस सो जाता है.