Many years later, Mandakini

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शाम की तिरछी गर्मी बाग के कोनों में लंबी घास के सरों पर ख़ास बैठी थी. हर घास का सर कपास का था, रूई के पतले तारों पर मैल से अटके शायद घास के बीज थे जहाँ जहाँ सूरज की किरण उस रूई के गोले को छूती , बाग में और दमक आ जाती. धूप के उस कोने भर में लंबी घास की तिरछी लकीरें थीं. उनकी आड़ में यहाँ वहाँ, छुयी मूई के बारीक पौधे. घास की तिरछी लकीर जो पेड़ होतीं, तो यह मूई छुयी छोटी झाड़ सी थीं. एक डाल सी पाती को उंगली लगाओ तो उसके साथ एक और सिमट जाती थी. केवल एक और डाल.. जैसे हर पाती किसी एक और से ख़ास जुड़ी है, पाँव अटके हैं, यहाँ से लहर चलती है तो वहाँ तक तरंग जाती है. भाई बहन कुछ देर वहीं विचरण करते रहे. बड़े बड़े पाँव थे, बड़ा आकार, बाग में अपने विशाल आकार से सहम कर चल रहे थे, वही कर रहे थे जो बचपन में किया करते थे, घास की छोटी दुनिया में प्रवेश की चेष्टा, पर अब चेष्टा आँख की पुतली पर एक सहमी धूल के कण सा था, आँखों में बचपन का तेज कम था. एक जगह एक गुड़िया की कपड़े की टाँग छूटी पढ़ी थी, उसपर धूप पत्तों से गुज़र कर छाव के त्रिकोण बनाती चली गयी थी.

कहूँ तो ऊपर ऊँचे नारियल के पेड़ भी थे, दूर पेड़ों के बीच एक घर का घोंसला भी था, सामने रास्ता पर, घर का बाबा अपनी गाड़ी में सवार आ रहा था. ईंट के उस गोदान घर के एक ओर तार पर कपड़े लगे थे, जलते पत्तों की खुश्बू हवा में थी.