Developing the film negative at Baburao Painter's film company

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अँधेरा हो जाने के बाद फिल्म धोने के कमरे में फिल्म की प्रक्रिया करना का काम शुरू हो गया. उस कमरे में दो बड़े ड्रम रखे थे, जिन पर आडी पट्टियां ठोकी हुई थीं. उन ड्रमों पर चित्रीकरण की हुई नेगटिव फिल्म लपेटी जातीं. ड्रमों के नीचे टीन की अर्धगोल आकार की टंकियां बनी theen. उन टंकियों में से फिल्म पर प्रक्रिया करनेवाली दवाईयां घुला पानी होता. निगेटिव फिल्म को द्राम पर बहुत की कस कर लपेटना पड़ता था. फिल्म के रोल को खींच कर इतना खींच हुआ रखना पड़ता कि दो सौ फुट के रोल में लकड़ी का डंडा हाथों में घुमते समय घर्षण के कारण बहुत गर्म हो जाता, दोनों हाथों में फफोले पड जाते. फिल्म को इतना कस के इसलिए लपेटना पड़ता कि रसायन में भीग जाने पर ढीली पड कर नीचे की रसायन की टंकियों से घिसने से वो खराब न हो जाए. उस रोल को मजबूती से पकड़ते हुए हाथों में ही घूमता रखना, उसे पकड़ने वाले की सहन शक्ति और इच्छाशक्ति की कसौटी ही हुआ करता. ये काम हमेशा जाधव किया करता. हाथ जलने के कारण उसके मुंह से निकलने वाले चीत्कार बीच बीच में मुझे भी सुनायी देते. जाधव की अनुमति से उस रोल को थामे रहने का काम मैंने अपने हाथों में ले लिया. उसने तो ख़ुशी से वो काम मुझे सौंप दिया. मैंने पक्का इरादा कर लिया कि चाहे हाथ जलकर ख़ाक क्यों ना हो जाएँ, रोल पूरी प्रक्रिया से गुजरने तक न तो उसे नीचे रखूंगा और न ही मुंह से उफ़ निकालूँगा. फिल्म पर जैसे जैसे रासायनिक प्रक्रिया पूरी होने लगी, वैसे वैसे उस पर दृश्यों तथा पात्रों के चित्र ऊपर लटकी लाल बत्ती की रोशनी में धीरे धीरे दिखाई देने लगे . उन चित्रों को देख कर मुझे बहुत आनंद आया. उसके बाद उस फिल्म को साफ़ पानी में धोकर सुखाने के लिए द्राम पर रात भर छोड़ दिया गया. फिल्म पर रासायनिक प्रक्रिया बराबर हुई है या नहीं, इसका निर्णय तो उन दिनों आँखों से निरीक्षण करके ही किया जाता था. ये बड़ी ज़िम्मेदारी का काम दामले को सौंपा गया tha. ये काम समाप्त करने होने के बाद मैंने जाधव के बताये अनुसार रसायनशाळा का फर्श साफ़ धो डाला और सूखे पोंछे से उसे पोंछ भी लिया. इसके बाद ये काम मैं हर रोज़ करने लगा और जाधव केवल देख रेख. महाराष्ट्र फिल्म कंपनी में थोड़े दिन काम करने के बाद ही एक बात मेरे ध्यान में भली भाँती आ गयी: ऊंची जिम्मेदारी तथा महत्त्व के काम किसी और के हवाले करने के लिए कोइ अक्सर तैयार नहीं होता tha. जो काम ज़्यादा शारीरिक मेहनत के हों, झंझट भरे हों, उन्हें करने की इच्छा किसी ने प्रकट की तो वे काम नए आदमी के हवाले करने में ज़रा भी देरी नहीं की जाती thee. इसलिए सामने दिखाई देने वाले कामों में जो काम सबसे नीचा माना जाने वाला होता, सबसे अधिक मेहनत का होता, उसे करने के लिए मैं तत्परता से आगे आ जाता, परिणाम ये रहा कि आहिस्ता आहिस्ता चित्रीकरण की सभी शाखाओं में बिलकुल निम्न स्तर से काम करने का अवसर मुझे बराबर मिलता गया . सवेरे मैं स्टूडियो के फ्लैटों को फिट करने वाला मजदूर बनता. बाद में मेक अप और वेशभूषा कराने वाला कारीगर बनता. फिर चित्रपट में कृष्णा का रोल अदा करने वाला हीरो बन जाता. रत में रसायनशाला में सहायक हो जाता और उसके बाद फिर से जमीन बुहारने वाला, फर्श धो कर साफ़ करने वाला नौकर बन जाता. इस तरह की अलग अलग भूमिकाएं मैं हर रोज़ नियमपूर्वक और उत्साह तथा उमंग के साथ निभाता था . वी. शांताराम की आत्मकथा से