The officer

From PhalkeFactory

the officer/the drawing room

1878

"Lady with Flower is too big for my drawing room. But I would like to have a look at it...not tragic scenes in my house...I have started admiring the pretty faces of your women. So I would like to have paintings of Krishna with Gopis, Coronation of Rama, and Sita Swayamvara... I would like to have a copy of Nair Lady inside the Mosquito Net which you had presented to the Prince of Wales.

Seshayya Sastri,Dewan Regent of Pudukottai, and a well respected native statesman among the British, writes to Ravi Varma.

N the painting in the living room. what a fine subject for a meandering piece: who might be the drawing in the drawing room?

अँग्रेज़ों के ज़माने में सिल्क स्क्रीन होते थे- या लकड़ी के तीन पाटों का एक परदा, हर पाट पर बारीक काम, जापानी फूल पाती, या सूर्यास्त के भड़कीले रंग, या शीशम पर करी गयी बारीक नक्काशी.. तो लो, मैं भी एक डेजाइन डालता हूँ, एक ऐसे पर्दे की, जो अफ़सरी ड्राइंग रूम की गहराइयों में चुप चाप चमके, दर्शकों को वहीं खड़ा रखे, वो उसमें यूं खो जाएँ .( कि मुझे लगे, हाँ, मैं भी कलाकार हूँ) ... तीनों पाटों पर मुख्य पात्र - मैं हूँ. जो बार बार दिखेगा- कभी बरसिंघे के कारागार के बाहर, कभी पहाड़ी चढ़ते उतरते, कभी गेस्ट हाउस की बाउंड्री के इस पार.. नेकर डाले, ऊपर ढीली कुरता नुमा शर्ट, जवान चेहरा, दाड़ी की पहली छाओं

तीनों पाटों पर एक छोटी पहाड़ी का फैला हुआ विस्तार. पहाड़ी पर हरी घास की चादर है, पर एक कोने पर जंगल फैला हुआ है:पेड़ के भिन्न रूप दायें पाट के कोने को, ऊपर से नीचे तक, लम्ब रूप से ढाके हैं.. जंगल के छोर से थोड़ी दूर पर, बारासिंगा का कारागार है.. कारागार क्या है, बल्लियों और तारों से बना एक सर्कल, कहानी का यह अंश दायीं ओर से बीच के पाट तक फैला हुआ है, .. बीच के पाट पर 'हम' खड़े हैं, मैं, और एक कर्म चारी, बारा सिंघा के बच्चे को देख रहे हैं.

बारा सिंघा का बच्चा भी जगह जगह पर दिखता है.. जंगल के अंदर, फिर, जंगल के छोर पर, और फिर कारागार के अंदर कभी एक छोर पर, कभी दुसरे, जैसे जेल के अंदर यहां वहां भाग रहा हो.और आगे, बायीं ओर , तीसरे पाट पर ऊपर की ओर, बैरा ट्रे पर चाय लिए पहाड़ी से नीचे उत्तर रहा है.. वही बैरा आख़री पाट पर बने गेस्ट हाउज़ में साहब को चाय पिला रहा है, देखो मैं वहां भी हूँ, गेस्ट हाउस की दीवार से अंदर झांकते हुए. और साहब और उनके साथ वो बच्चे सरकारी सफ़ेद टाटा सफारी में बैठे पहाड़ी से नीचे जाती सड़क परजाते हुए भी दिख रहे हैं..

दोपहर का आखरी पहर, सांकचूरी के बाहर का पहाड़ी इलाक़ा.

लकड़ी के बल्लों के बीच तार का जाल डाला है. बल्ले और तारों के एक पाँच फीट त्रिज्या के सर्कल ने पहाड़ी की ढलान पर बिछी घास का एक हिस्सा घेर लिया है. इस कारावास के तारों पर अपने को बार बार पटक रहा है वो बारा सिंगा बालक. तारों के जाल पर उसके व्यथित बारीक बदन का लगना ही उसकी वेदना की आवाज़ है. मेरे बगल में खड़ा फोरेस्ट डिपार्टमेंट का कोई छोटे वर्ग का कर्मचारी है. उसके भूरे थके चहरे की ढलानों पर दो मैले चश्मों सी आँखें हैं, आँखों पर तैरती हैरान पुतलियाँ मेरे जैसे उस बालक को एकटक ताक रही हैं. हम दोनों शायद उस बच्चे के सर से जुड़े टहनीयों के अद्भुत जाल-मुकुट को देख कर घबरा रहे हैं, कि वो तब टूटा और अब,. उस बालक के लिए वो उसके अंग का हिस्सा हैं. वो परेशानी में अपने बदन को फिर फिर दे मारता है, हमारी कमज़ोर आँखें और सहम जाती हैं. "कल रात को जंगल से भटक कर बाहर आ गया था" वो छोटी बैक स्टोरी देता है.

मेरी आंखँ बालक से हटकर ( और हम कर भी क्या सकते हैं? ) पहाड़ी ढलान पर से उतरते बैरे की ओर जाती है, अँग्रेज़ों के ज़माने की कुछ मैली पोशाक है, मेरी नज़र उसके हाथ के ट्रे पर है, ट्रे पर लगे फ़्लास्क और कप, फ़्लास्क याने चाय है... ट्रे मेरे पास से गुज़र कर मेरे पार जाता है, तो मैं हिरण छोड़ कर आगे बढ़ता हूँ (उसको खड़े खड़े देख ही सकता हूँ और देखा भी नहीं जाता).

गेस्ट हौस का गेट. पहाड़ की वही ढलान पर यहाँ घास से तिनके कंकड़ जंगली झाड़ बीन कर लॉन बनाया गया है. लॉन के एक छोर पर साहब बेंत की कुर्सी पर बैठे हैं, सामने काँच की मेज पर पड़े काग़ज़ साईन कर रहे हैं. बगल में पीठ पीछे हाथों को 'तैयार अरदली मुद्रा' में रखे अरदली, मुख पर तैयार मुस्कान, किसी नर्तक समान .. बैरा चाय साहब के सामने रखता है, मेरे अंदर बुदबुदाता ख़याल स्पष्ट हो जाता है, मैं सोचता हूँ बाहर आएगा तो मैं भी उस से चाय माँगूँगा.. छोटे कमरे में सही, पर मैं भी इस ही गेस्ट हाऊज़ में रहता हूँ! साहब के पार हरे रूमाल से लॉन के दूसरे छोर पर, पर, हरी घास में डूबी, गिरती उतरती छः खिलखिलाती बारीक टांगे, तीन युवक युवतियाँ, दाँतों में भीनी चमक , खिल खिल करते स्वर, अपनी ही फोटो ले रहे है, और उसको देख कर हँस रहे हैं, आनंदित हो रहे हैं.. ही हही ही का अचेत खुश स्वर. मैं उन्हे देख कर रुक सा जाता हूँ. एक बार, पापा के राज में, मैं ऐसा नहीं दिखता रहूँगा क्या? अरदली और अन्य मेरे रूमाल के बॉर्डर को सजाते हुए, और मैं, बीच में, बेवकूफ़ और बहुत सुंदर.